Sunday, March 20, 2011

2 भारत में तकनीक

भारत में तकनीक
"जिस देश में उत्पादन सबसे अधिक होता है, यह तभी संभव है जब उस देश में कारखाने हों.कारखाने होना तभी संभव है जब वहाँ तकनीक हो. तकनीक तभी संभव है जब वहाँ विज्ञान हो और विज्ञान जब मूलरूप से शोध के लिए अगर प्रस्तुत है तभी उसमे से तकनीक का निर्माण होता है."     - कैम्पबैल
यानी कि मूल विज्ञान(fundamental science)-> प्रायोगिक विज्ञान(applied science) -> तकनीक (technology)->उत्पादन (production).


स्टील
स्टील बनाने की जो कला है वो सारी दुनिया को भारत ने सिखाई. स्टील को बनाना बहुत ही जटिल तकनीक है, कच्चे लोहे से, आयरन ओर से स्टील बनाना कोई आसान तकनीक नहीं है.
अट्ठारहवीं शताब्दी(18th ) तक भारत में स्टील बनाने की बेहतरीन तकनीक रही है. कैम्प्बैल कहता है,
"भारत के जोड का स्टील पूरे विश्व में कहीं नहीं है. इंग्लैंड या यूरोप में अच्छे से अच्छा जो लोहा बनता है वो भारत                     के घटिया लोहे का मुकाबला भी नहीं कर सकता."

जेम्स फ्रान्कलिन को बहुत बड़ा धातु विशेषज्ञ माना जाता है. वो अठारहवीं सदी में यह कह रहा है ,
        "भारत का स्टील सर्वश्रेष्ठ है. यूरोप का सर्वोत्तम स्टील स्वीडन में बनता है, लेकिन भारत का स्टील सर्वश्रेष्ठ है.भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिये जो भट्टियां तैयार करते हैं वो विश्व में कोई नहीं बना पाता.इंग्लैंड में तो लोहा बनाना अट्ठारहवी सदी में शुरू हुआ, भारत में तो लोहा दसवी शताब्दी से ही हज़ारों-हज़ार टन में बनता रहा है और विश्व के बाजारों में बिकता रहा है."
आगे वो कहता है,  "मैं 1764 में भारतीय स्टील का नमूना लाया था और मैने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉक्टर स्कॉट को ये नमूना दिया और उनसे कहा कि 'लन्दन रोयल सोसाइटी' की ओर से इसकी जांच करें. जांच के बाद उनका कहना था कि ये स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिए बनाये जाने वाले सभी उपकरण इससे बनाये जा सकते हैं, जो कि विश्व के किसी देश के पास उपलब्ध नहीं हैं. मुझे लगता है कि भारत के इस स्टील को अगर हम पानी में भी डालकर रखेंगे तो भी इसमें जंग नहीं लगेगी."
आप कभी दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखने जाएँ तो वहाँ बना एक लौह स्तंभ ज़रूर देखना, ये बहुत पुराना है और इसकी  खासियत यह है कि ये सदियों से खुले आकाश के नीचे खड़ा है,बरसात और धूप में ये तबसे अबतक खड़ा है लेकिन इसपर जंग नहीं लगती, इतनी अदभुत तकनीकी रही है भारत की.

अंग्रेज़ अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल ए.वॉकर ने भारत की शिपिंग इंडस्ट्री पर काफी रिसर्च किया है.वो कहता है कि,
       "भारत का जो अदभुत लोहा है ये जहाज़ बनाने के काम में सबसे ज्यादा आता है. दुनिया में जहाज़ बनाने की सबसे पहली कला और तकनीक भारत में ही विकसित हुई है और दुनिया ने पानी का जहाज़ बनाना भारत से ही सीखा है."
आगे वो कहता है," भारत में समुद्र किनारे बसे ऐसे लाखों गांव हैं जहां पिछले दो हज़ार वर्षों से जहाज़ बनाने का काम हो रहा है.इस्ट इंडिया कंपनी के जितने भी जहाज़ दुनिया में चल रहे हैं वो भारत की ही स्टील के बने हैं.ये कहने में मुझे शर्म आती है कि हम अंग्रेज अभी तक इतनी अच्छी गुणवत्ता(क्वलिटी) का स्टील नहीं बना पाए हैं."
वो आगे कहता है कि, "यदि हम भारत में 50 साल तक चला जहाज़ खरीदते हैं और इस्ट इंडिया कंपनी में चलाते हैं,तो वो भी 20-25 साल आराम से चल जाता है. हम जितने धन में एक नया जहाज़ बनाते हैं भारतीय उतने ही धन में चार नए जहाज़ बना लेते हैं.हमारे लिए तो इनके पुराने जहाज़ ही खरीदना बेहतर है क्यूंकि खुद नए जहाज़ बनाकर हम कंपनी को दीवालिया नहीं कर सकते." यानि कि भारत का पुराना जहाज़ भी उनके नए जहाज़ से बेहतर था.
इसके अलावा वो कहता है,
                       " भारत में तकनीक के स्तर पर ईंट,ईंट से ईंट जोड़ने का चूना और इसके अलावा भारत में  36 तरह के दूसरे टेक्निकल उद्योग हैं. इन सभी उद्योगों में भारत दुनिया में सबसे आगे है.इसलिए हमें भारत से व्यापार करके यह तकनीक लेनी है और यूरोप लाकर फिर से पुनरुत्पादित(रीप्रोड्यूस) करनी है."

1795 में एक अंग्रेज़ सर्वेक्षण के लिए भारत आया. वो लिखता है,"भारत में स्टील बनाने का काम पिछले 1500 वर्षों से हो रहा है. मैं भारत के पश्चिमी,पूर्वी और थोड़े से दक्षिणी इलाके में घूमा और मैंने देखा कि स्टील बनाने के लगभग पन्द्रह हज़ार (15000) छोटे कारखाने भारत में चल रहे हैं. यहाँ हर फैक्ट्री में प्रतिदिन 500 किलो स्टील आराम से बनता है. एक फैक्ट्री 24 घंटे चलती है. मजदूरों की तीन पालियां हैं. हर पाली आठ घंटे काम करती है. इन फैक्ट्रीयों में जो सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है वो है लोहा गलाने वाली भट्टी(ब्लास्ट फर्नेंस). भारत में ये भट्टी 15 रुपये के खर्च में बन जाती है(आज के 15*300=4500रु.). एक भट्टी एक दिन में आराम से 1 टन स्टील बना लेती है और इतनी स्टील बनाने में भारत के कारीगरों का खर्चा मात्र 80रु. आता है."[यानि कि आज(2010) के 80*300=24000रु].
वो आगे लिखता है," सभी 15000 फैक्ट्रीयों में एक दिन में 7500 मीट्रिक टन लोहा बनता है और एक साल में 27. 5 लाख मीट्रिक टन लोहा. इस स्टील की सरिया बनती है और वो यूरोप में बिकने जाती है और वहाँ सबसे महंगे दामों में बिकती है, क्योंकि भारत के स्टील की तुलना में दुनिया का कोई स्टील नहीं ठहरता. इस अदभुत भारतीय स्टील में जंग नहीं लगता. भारत के बाद स्वीडन का स्टील बेहतरीन है लेकिन वहाँ इसे बनाने में 100 गुणा ज़्यादा खर्च आता है, 1 टन स्टील 8000रु में बनता है.
भारत में जो भट्टी बनती है वो काफी हल्की है और बैलगाड़ी में रखकर आराम से लाई व ले जाई जा सकती है. भारतीय भट्टी पोर्टेबल है, वहीं यूरोप में जो भट्टियां हैं वो स्थायी हैं. अगर उन्हें निकालने का प्रयास करें तो वे टूट जाती हैं. इन भारतीयों का ज्ञान अदभुत है. ये साधारण सी भट्टी में 1400 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा कर लेते हैं. भारत का कोयला व कच्चा लोहा भी अदभुत है इसलिए इनका स्टील भी अदभुत है."
ये अंग्रेज़ भारत से स्टील बनाने की कला सीखकर लन्दन गया और वहाँ मैटलर्जी का स्कूल खोला और स्टील बनाने वाला पहला अंग्रेज़ बन गया.

हवाई जहाज़ : भारत की महान तकनीक
हमने सुन रखा है कि 17 दिसम्बर 1903 को अमरीका में कैरोलीना के समुद्र तट पर राइट ब्रदर्स ने पहला हवाई जहाज़ बनाकर उडाया जो 120 फीट उड़ा और गिर गया. फिर उसके बाद आगे हवाई जहाज़ की कहानी शुरू होती है. हम सब बचपन से यही पढ़ते आये हैं.
                 अब जो दस्तावेज़ मिले हैं वो ये बताते हैं कि 1903 से पहले 1895 में शिवकर बापूजी तलपडे जी ने भारत में विश्व का पहला हवाई जहाज़ उडाया था. तलपडे जी का जन्म मुम्बई के चीरा बाज़ार में हुआ. उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की और संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन किया. इसी में उन्होनें महर्षि भारद्वाज की विमान शास्त्र पुस्तक का अध्ययन किया.

महर्षि भारद्वाज का विमान शास्त्र
महर्षि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की सबसे पहली पुस्तक लिखी. उसके बाद उसके आधार पर विमान शास्त्र की सैकड़ों पुस्तकें लिखी गयीं. महर्षि भारद्वाज की जो सबसे पुरानी पुस्तक हमें प्राप्त होती है वो 1500साल पुरानी है, महर्षि भारद्वाज तो उसके भी बहुत सदियों पहले हुए थे. विमान शास्त्र की पुस्तक के बारे में तलपडे जी ने लिखा है कि इस पुस्तक में आठ अध्यायों में विमान बनाने की तकनीक का ही वर्णन है. आठ अध्यायों में सौ खण्ड हैं जिनमें विमान बनाने की तकनीक का विस्तार से वर्णन है. महर्षि ने अपनी पुस्तक में विमान बनाने के 500 सिद्धांत लिखे हैं. आप ज़रा इस बात पर ध्यान दीजियेगा, एक सिद्धांत पर पूरा का पूरा इंजन बन जाता है, और पूरा विमान बन जाता है.यानि कि 500 तरह के विमान बनाये जा सकते हैं. तलपडे जी ने इस पुस्तक के बारे में लिखा है कि इन 500 सिद्धांतों के तीन हज़ार(3000) श्लोक हैं. महर्षि भारद्वाज ने विमान बनाने की 32 प्रक्रियाओं का वर्णन भी किया है. ज़रा ध्यान दीजियेगा, 32 तरीकों से 500 किस्म के विमान बनाए जा सकते हैं. तीन हज़ार श्लोक, सौ खण्ड,आठ अध्याय कितना बड़ा ग्रन्थ है ये. इसे पढ़कर तलपडे जी ने कुछ परीक्षण किये और अंततः वे सफल हुए.
विश्व का पहला विमान
1895 में तलपडे जी सफल हुए, उन्होंने पहला विमान बना लिया और उसे उड़ाकर भी दिखाया. ये काम उन्होंने कई बड़े लोगों की उपस्थिति में किया. मुम्बई हाई कोर्ट के जज महादेव गोविन्द रानाडे, वडोदरा के राजा गायकवाड और ऐसे बीसियों बड़े लोगों और हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने उन्होंने ये परिक्षण किया. हैरानी की बात ये थी कि उस विमान में कोई चालक नहीं था. यानि उस विमान को उडाया होगा तो कंट्रोल सिस्टम तलपडे जी के हाथ में है और विमान उड़ रहा है. उस विमान को वे 1500 फीट तक ले गए और उसे सकुशल उतारा, विमान टूटा नहीं, उसमें आग नहीं लगी, कोई दुर्घटना नहीं हुई. विमान उड़ा, पन्द्रह सौ फीट तक गया और उतर आया. सारी भीड़ ने तलपडे जी को कन्धों पर उठा लिया. महाराजा गायकवाड ने उनको इनाम में जागीर देने की घोषणा की. गोविन्द रानाडे जी ने घोषणाएं कीं, बड़े-बड़े लोगों ने घोषणाएं कीं.
तलपडे जी का कहना था कि वे ऐसे कई विमान बना सकते हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, उनपर पैसे की कमी है. तो लोगों ने पैसे इकट्ठा करने की घोषणा की ताकि तलपडे जी को धन की कमी ना हो. लेकिन तभी उनके साथ एक धोखा हुआ, अंग्रेजो की एक कंपनी रैली ब्रदर्स तलपडे जी के पास आई. उसने उनसे कहा कि आप अपने विमान के कागज़ात हमें दे दीजिए हम आपकी मदद करना चाहते हैं.आपने जो आविष्कार किया है उसे सारी दुनिया के सामने लाना चाहते हैं. हमारी कंपनी काफी पैसा इस काम में लगा सकती है इसलिए आप हमसे समझौता कर लीजिए और विमान का डिजाईन हमको दे दीजिए. तलपडे जी भोले-भाले आदमी थे,चालाकी जानते नहीं थे,मान गए. ये कंपनी उनके विमान के ज़रूरी कागज़ात,विमान का पूरा मॉडल, ड्राइंग और डिजाईन लेकर इंग्लैंड चली गयी. वहाँ जाकर वे अपना समझौता भूल गए. इंग्लैंड से ये कागज़ात अमरीका पहुंचा दिए गए. वहाँ राइट ब्रदर्स ने ये विमान अपने नाम से बनाया और तलपडे जी का नाम सारी दुनिया भूल गयी.
           तलपडे जी की तो मृत्यु पर भी शंका है. शायद उनकी ह्त्या की गयी थी. जिस व्यक्ति के नाम एक बहुत बड़े आविष्कार का नाम जुड़ सकता हो उसकी हत्या करवाने की काफी संभावना बन जाती है. अगर उनकी हत्या की ठीक से जांच हो तो कई बातें सामने आ सकती हैं.

                    तलपडे जी कि गलती क्या थी? उनको चालाकी समझ नहीं आयी. भारत के लोगों को सब आता था. विज्ञान,तकनीक,आध्यात्म,व्यापार सब कुछ आता था. भारतीय ज्ञानी थे,उदार थे,वीर थे,वैभवशाली थे सब कुछ था बस चालाकी नहीं आती थी, और ये अंग्रेज़ और अमरीकी कुछ नहीं जानते थे बस चालाकी आती थी.
                    अब हमें ये बात उठानी चाहिए कि पहला विमान हमने बनाया और अंग्रेज़ कंपनी ने समझौते को भुलाकर जो बेमानी और बदमाशी की उसका हर्जाना रैली ब्रदर्स कंपनी को देना चाहिए. लेकिन ऐसी आवाज़ वही सरकार उठा सकती है जिसे अपने वतन के सम्मान व स्वाभिमान से प्यार हो और जो पूरी हिम्मत से अपना हक मांगने की भावना रखती हो, लेकिन अब तक जो राजनैतिक पार्टियां और सरकारें हमने भारत में देखी हैं उनमें ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आता.

 [ दी गयी जानकारियाँ ब्रह्मलीन श्री राजीव दीक्षित जी की सालों की मेहनत से जुटाए गए और पूर्णतः प्रमाणित सबूतों के आधार पर आधारित हैं ] 
[ राजीव जी की सीडियों के लिए किसी भी पतंजली चिकित्सालय से संपर्क करें और भारत स्वाभिमान शंखनाद नाम से बीस सीडियों का पैकेट वहां आपको मिल जायेगा, इनमें बहुत सी ज़रूरी जानकारियाँ आपको अपने देश, इतिहास और राजनीति के बारे में पता चलेंगी]


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