Sunday, March 20, 2011

भारतीय होने का गर्व. 'भारत का स्वर्णिम अतीत'

भारतीय होने का गर्व क्यों करें ?  अक्सर आज के भारतीय ये सवाल करते हैं . दरअसल ये प्रश्न दर्शाता है कि  आज भारतीयों क मन में कितनी हताशा है, उनके दिमाग  में अपने वतन की, अपनी सभ्यता की कितनी गलत तस्वीर बनी हुई है. इस ब्लॉग को पढने के बाद ऐसे लोग अपने भारतीय होने का गर्व करने लगेंगे.
            हम इस ब्लॉग में मज़बूत सबूतों के आधार पर अपनी बात को साबित करेंगे और क्योंकि  आज के भारतीयों में ये सोच बन गयी है की विदेशी इतिहासकारों की बात ज्यादा भरोसेमंद होती है इसलिए हम उन्ही के द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रमाणों  के आधार पर बात करेंगे.
            अभी हम भारत के प्राचीन गौरवशाली अतीत की बात नहीं करते हैं फिलहाल हम सौ - डेढ़ सौ(100 -150) सालों से लेकर पिछले हज़ार(1000) साल तक के भारत के अतीत की चर्चा करेंगे.
 भारत के इतिहास के इस कालखंड पर २०० से ज्यादा विदेशी इतिहासकारों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. इनमें से कुछ  प्रमुख इतिहासकारों की  बात हम इस चर्चा में रखेंगे.

इन निम्नलिखित ब्लॉग पोस्टों में हम ये चर्चा करेंगे,
1 भारत के व्यापार और उद्योग.
2 भारत में तकनीक.
3 चिकित्सा विज्ञान में भारत की विश्व को देन.
4 विज्ञान में भारत की विश्व को देन. 
5 कृषि- भारत की विश्व को एक महान देन.
6 भारत की महान शिक्षा व्यवस्था.
7 भारत द्वारा भाषा और लिपि की देन.
  

1 भारत में उद्योग व व्यापार

भारत में उद्योग व व्यापार
थॉमस वी. मैकॉले 17 वर्ष भारत में रहा और जगह-जगह पूरे देश में घूमा. 17 वर्ष बाद जब वो वापस इंग्लैंड़ गया, तो वहाँ हाउस ऑफ कॉमन्स में उसने ये भाषण दिया,-
                      " I have traveled length and breadth of this country India, but I have seen no beggar and thief  in this country India."
ये बात वो 02 फरवरी 1835 को कह रहा है. इसके आगे वो और भी बड़ी बात कहता है,
                        "I have seen such wealth in this country India that we can not imagine to conquer this country India."
    यानि वो अंग्रेज़ खुद कह रहा है कि, " मैं पूरे भारत में घूमा लेकिन मैंने एक भी भिखारी या चोर भारत में नहीं देखा." वो कहता है,
"इस देश का वैभव देख कर मुझे नहीं लगता कि हम भारत को गुलाम बना सकते हैं."
वो आगे कहता है,
          " भारत मैं जिस व्यक्ति के घर मैं कभी गया, वहाँ सोने का ढ़ेर ऐसे लगा रहता है जैसे चावल व गेंहूँ के ढेर. वे इन्हें गिन नहीं पाते इसलिए तराजू से तौल  कर रखते हैं. कहीं सौ किलो, कहीं दो सौ किलो, कहीं पांच सौ किलो."

इस भाषण से जो चीज़ साफ़ समझ में आती है वो ये कि उस समय तक भारत में कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं था, कोई भी बेरोज़गार नहीं था और इसीलिये कोई भी भारतीय चोर या भिखारी नहीं था. वो भारत में बहुत सारा सोना और वैभव देखने की बात भी कह रहा है, यानि कि भारतीयों पर जो भी रोज़गार और व्यापार था उससे उनकी बहुत अच्छी कमाई भी होती थी. यानि कि उस समय तक भारत में सभी लोगों के पास काम था और आमदनी भी अच्छी थी. अब थोड़ा और विस्तार से आपको भारत के उद्योग और व्यापार की जानकारी कराता  हूँ,

इंग्लैंड़ का इतिहासकार विलियम डिग्बी यूरोप और अमेरिका में भी बहुत सम्माननीय इतिहासकार रहा है, बिना प्रमाण,बिना साक्ष्य के ये कोई बात नहीं कहता ऐसी इसकी ख्याति रही है.इसने भारत के बारे में एक बड़ी पुस्तक लिखी है, उसका थोड़ा सा अंश बताता हूँ,
                             " भारत विश्व का सर्वसम्पन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं, बल्कि सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश भी था."
ये बात वो 18 वीं शताब्दी में कह रहा है. आगे वो लिखता है कि,
                      " भारत के व्यापारी सबसे होशियार हैं, यहाँ के कारीगरों का कपड़ा व अन्य वस्तुएं पूरे विश्व में बिक रही हैं. इसके बदले में वो सोने की मांग करते है, जो अन्य देशों के व्यापारी उन्हें हाथों-हाथ दे देते हैं."
        "इस देश में उत्पादन के बाद जब ये वस्तुएं दूसरे देशों के बाज़ारों में बिकती हैं, तो भारत में सोना चांदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी बहता है. जैसे भारत की नदियों का पानी प्रवाहित होकर महासागर में गिरता है, वैसे ही विश्व का सोना-चांदी प्रवाहित होकर भारत में गिरता है."
        " विश्व के देशों से सोना और चांदी भारत में आता तो है लेकिन यहाँ से जाता एक ग्राम भी नहीं है. क्योंकि ये भारतवासी निर्यात(एक्सपोर्ट) ही करते हैं, आयात (इम्पोर्ट) करते ही नहीं हैं. ये सभी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, इन्हें आयात की ज़रूरत ही नहीं है. "
ये आज से तीन सौ वर्ष पहले का भारत रहा है. यानि कि कृषि के उत्पाद(गेहूं,कपास,धान,चावल,गुड़ आदि अनेकों चीज़ें), उद्योगों के अनेकों उत्पादों को बनाकर और विश्व के बाजारों में बेचकर भारत पूरे विश्व में सर्वोच्च देश बना हुआ था. कोई भी ऐसी चीज़ विश्व में नहीं थी जो भारतीय नहीं बना सकते हों. भारत की कृषि तो सब जानते ही हैं, मैं आपको भारत के उद्योगों के बारे में कुछ जानकारी देता हूँ.

फ्रांस के फ्रास्वा पेराड़ नें 1711 में भारत के बारे में एक बड़ा ग्रन्थ लिखा है व सैकड़ों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं. उनमें से एक में वो कहता है कि,
       " भारत में मेरी जानकारी में 36  तरह के ऐसे उद्योग चलते हैं जिनमें उत्पादित होने वाली हर वस्तु विदेशों में निर्यात होती है. भारत के सभी शिल्प और उद्योग उत्पादन में सर्वोत्कृष्ट, कलापूर्ण व कीमत में सबसे सस्ते हैं. सोना, चांदी, लोहा, इस्त्पात, तांबा, अन्य धातुएं, लकड़ी के सामान, मूल्यवान दुर्लभ पदार्थ, इतनी ज़्यादा विविधता के साथ भारत में बनते हैं जिनके वर्णन का कोई अंत नहीं. मुझे जो प्रमाण मिले हैं उससे मुझे ये पता चलता है कि भारत का निर्यात दुनिया के बाज़ारों में पिछले तीन हज़ार(3000) सालों से अबाधित रूप से बिना रुके चल रहा है. "
यानि कि अनेकों धातुएं, पदार्थ आदि बनाए जाते थे भारत में और फिर उनसे अनेकों प्रकार की चीज़ें भी बनाई जाती थीं. जैसे कि भारत में बेहतरीन लोहा बनता था और फिर उससे सरिया से लेकर जहाज तक बनाए जाते थे.


स्कॉटिश इतिहासकार मार्टिन कहता है कि,
            " इंग्लैंड के निवासी जब बर्बर व जंगली जानवरों की तरह जीवन बिताते थे तब भारत में सबसे बेहतरीन कपड़ा बनता था और विश्व के बाज़ारों में बिकता था. मुझे ये स्वीकारने में कोई शर्म नहीं है कि भारत के वासियों नें पूरी दुनियाँ को कपड़ा बनाना और पहनना सिखाया है."
     वो आगे कहता है कि," हम अंग्रेज़ और उनकी सहयोगी जातियों नें भारत से ही कपड़ा बनाना और पहनना सीखा है."
         " रोमन साम्राज्य के सभी राजा-रानी भारत के कपडे मंगाते रहे हैं और पहनते रहे हैं. "


फ्रांस का इतिहासकार ट्रेवर्नी 1750 में लिखता है कि,
       " भारत के वस्त्र इतने सुन्दर व हल्के हैं कि हाथ पर रखो तो वज़न पता ही नहीं चलता. सूट की महीन कताई मुश्किल से नज़र आती है. भारत के कालीकत्, ढाका, सूरत, मालवा में इतना महीन कपड़ा बनता है कि पहनने वाला नग्न मालूम होता है." अर्थात बुनाई अत्यधिक महीन होती थी. वो आगे कहता है,
           " भारत के कारीगर इतनी अदभुत बुनाई हाथ से करते हैं कि दुनियाँ के किसी भी देश में इसकी कल्पना करना मुश्किल है. "


अंग्रेज़ विलियम वॉर्ड कहता है,
     " भारत का मलमल बड़ा विलक्षण है. ये भारत के कारीगरों के हाथों का कमाल है कि अगर इस मलमल को घास पर बिछा दिया जाए और उस पर ओस की एक बूँद गिर जाए तो दिखाई नहीं देती है. क्योंकि ओस की बूँद में जितना पतला व हल्का रंग होता है, उतना ही हल्का वो कपड़ा होता है, इसलिए वो आपस में मिल जाते हैं, अलग दिखाई नहीं देते. "
वो आगे कहता है,
          " भारत का 13 गज लंबा कपड़ा हम छोटी सी अंगूठी से खींचकर बाहर निकाल सकते हैं. कपड़े की इतनी बारीक व महीन बुनाई यहाँ होती है. 15 गज़ (लगभग 14 मीटर) के कपड़े के थान का वज़न 100ग्राम से भी कम होता है. मैंने बार बार भारत के कई थानों का वज़न किया है, हर बार वो सौ ग्राम से कम ही रहता है, कुछ थानों का वज़न तो 15-20 रत्ती के आस-पास है. " [एक तोला दस ग्राम के बराबर होता है. रत्ती दस ग्राम से भी छोटी इकाई होती है. उसने ये वज़न ग्रेन में तोला था जो कि एक अंग्रेज़ी इकाई है.]
वो इससे भी आगे स्पष्ट कहता है,
              " हम अंग्रेज़ों नें तो कपड़ा बनाना सन् 1780 के बाद शुरू किया है, भारत में तो पिछले तीन हज़ार सालों से कपड़े का उत्पादन होता रहा है व विश्व के बाज़ारों में बिकता रहा है. "



एक अंग्रेज़ अधिकारी थॉमस मुनरो कई वर्ष मद्रास में गवर्नर रहा. उस समय उसे एक राजा नें एक शॉल भेंट की. नौकरी पूरी होने पर ये अधिकारी लन्दन वापस चला गया. सन् 1813 में लन्दन की संसद में उसनें ये बयान दिया,
            " भारत से मैं एक शॉल लेकर आया. इसे मैं कई सालों से इस्तेमाल कर रहा हूँ. उसे कई बार धोया है, प्रयोग किया है, फिर भी उसकी क्वालिटी में कोई कमी नहीं है, कोई सिकुडन नहीं है.मैंने पूरे यूरोप में प्रवास किया है. एक भी देश इस क्वालिटी का शॉल नहीं बना सकता. भारत का वस्त्र अतुलनीय है. "

ऐसे दो सौ इतिहासकार भारत के वैभव के साक्षी रहे हैं.



विश्व बाज़ार में भारत की प्रभुता.
सन् 1813 में अंग्रेज़ी संसद में पेश रिपोर्ट कुछ इस प्रकार है,-
        " सारी दुनिया के कुल उत्पादन का 43% भारत में होता है. "
अर्थात विश्व के दो सौ देशों में अकेले भारत का उत्पादन 43% है और 57% में बाकी पूरा विश्व.
अगर आज(2009) से इसकी तुलना करें तो आज अमरीका का कुल उत्पादन 25% है. चीन का 23% है. दोनों का कुल उत्पादन हुआ 48%, जो उस समय के अकेले भारत के उत्पादन से मात्र पांच प्रतिशत ज़्यादा है.
रिपोर्ट में वो आगे कहते हैं कि,
    " विश्व के बाजारों के निर्यात (एक्सपोर्ट) में 33% हिस्सा भारत का है. "
ये आंकडा सन् 1840 तक अंग्रेज़ों के द्वारा कोट किया गया.
रिपोर्ट में वे आगे लिखते हैं कि,
 "सारी दुनिया की कुल आमदनी का 27% हिस्सा भारत का था. "
ये हालत सन् 1840 तक रही है. उस समय तक अमरीका का निर्यात एक प्रतिशत से भी कम था. ब्रिटेन का आधे प्रतिशत से भी कम निर्यात था. पूरा अमरीका व यूरोप के 27 देशों का निर्यात भी जोड़ लें  तो वो भी 3%-4% से अधिक नहीं बैठता. वहीं अकेले भारत का निर्यात 33% था.
यूरोप के सभी देश और अमरीका का कुल उत्पादन 10-12% रहा है और भारत का 43% उत्पादन रहा है.
यूरोप व अमरीका की कुल आमदनी 4 से 4.5% रही है और अकेले भारत की 27%.

सन् 1840 तक विश्व बाज़ार में भारत की स्थिति की तुलना
                   भारत                      अमरीका व ब्रिटेन सहित यूरोप के 27 देश
निर्यात:               33%                  3% से 4%( अमरीका-1% से कम, ब्रिटेन 0.5% से कम)

उत्पादन:              43%                       10% - 12%

आमदनी:              27%                       4% - 4.5%                        



यानि कि आज से 150-200 साल पहले तक भारत के लोगों के पास भरपूर रोज़गार था, उद्योग थे, किसान खुशहाल था और भारतीय विश्व के साथ व्यापार करके खूब धन कमा  रहे थे.


[साभार-'भारत का स्वर्णिम अतीत', भारत स्वाभिमान शंखनाद, भारत स्वाभिमान संगठन]
 [ दी गयी जानकारियाँ ब्रह्मलीन श्री राजीव दीक्षित जी की सालों की मेहनत से जुटाए गए और पूर्णतः प्रमाणित सबूतों के आधार पर आधारित हैं ] 
[ राजीव जी की सीडियों के लिए किसी भी पतंजली चिकित्सालय से संपर्क करें और भारत स्वाभिमान शंखनाद नाम से बीस सीडियों का पैकेट वहां आपको मिल जायेगा, इनमें बहुत सी ज़रूरी जानकारियाँ आपको अपने देश, इतिहास और राजनीति के बारे में पता चलेंगी]

2 भारत में तकनीक

भारत में तकनीक
"जिस देश में उत्पादन सबसे अधिक होता है, यह तभी संभव है जब उस देश में कारखाने हों.कारखाने होना तभी संभव है जब वहाँ तकनीक हो. तकनीक तभी संभव है जब वहाँ विज्ञान हो और विज्ञान जब मूलरूप से शोध के लिए अगर प्रस्तुत है तभी उसमे से तकनीक का निर्माण होता है."     - कैम्पबैल
यानी कि मूल विज्ञान(fundamental science)-> प्रायोगिक विज्ञान(applied science) -> तकनीक (technology)->उत्पादन (production).


स्टील
स्टील बनाने की जो कला है वो सारी दुनिया को भारत ने सिखाई. स्टील को बनाना बहुत ही जटिल तकनीक है, कच्चे लोहे से, आयरन ओर से स्टील बनाना कोई आसान तकनीक नहीं है.
अट्ठारहवीं शताब्दी(18th ) तक भारत में स्टील बनाने की बेहतरीन तकनीक रही है. कैम्प्बैल कहता है,
"भारत के जोड का स्टील पूरे विश्व में कहीं नहीं है. इंग्लैंड या यूरोप में अच्छे से अच्छा जो लोहा बनता है वो भारत                     के घटिया लोहे का मुकाबला भी नहीं कर सकता."

जेम्स फ्रान्कलिन को बहुत बड़ा धातु विशेषज्ञ माना जाता है. वो अठारहवीं सदी में यह कह रहा है ,
        "भारत का स्टील सर्वश्रेष्ठ है. यूरोप का सर्वोत्तम स्टील स्वीडन में बनता है, लेकिन भारत का स्टील सर्वश्रेष्ठ है.भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिये जो भट्टियां तैयार करते हैं वो विश्व में कोई नहीं बना पाता.इंग्लैंड में तो लोहा बनाना अट्ठारहवी सदी में शुरू हुआ, भारत में तो लोहा दसवी शताब्दी से ही हज़ारों-हज़ार टन में बनता रहा है और विश्व के बाजारों में बिकता रहा है."
आगे वो कहता है,  "मैं 1764 में भारतीय स्टील का नमूना लाया था और मैने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉक्टर स्कॉट को ये नमूना दिया और उनसे कहा कि 'लन्दन रोयल सोसाइटी' की ओर से इसकी जांच करें. जांच के बाद उनका कहना था कि ये स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिए बनाये जाने वाले सभी उपकरण इससे बनाये जा सकते हैं, जो कि विश्व के किसी देश के पास उपलब्ध नहीं हैं. मुझे लगता है कि भारत के इस स्टील को अगर हम पानी में भी डालकर रखेंगे तो भी इसमें जंग नहीं लगेगी."
आप कभी दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखने जाएँ तो वहाँ बना एक लौह स्तंभ ज़रूर देखना, ये बहुत पुराना है और इसकी  खासियत यह है कि ये सदियों से खुले आकाश के नीचे खड़ा है,बरसात और धूप में ये तबसे अबतक खड़ा है लेकिन इसपर जंग नहीं लगती, इतनी अदभुत तकनीकी रही है भारत की.

अंग्रेज़ अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल ए.वॉकर ने भारत की शिपिंग इंडस्ट्री पर काफी रिसर्च किया है.वो कहता है कि,
       "भारत का जो अदभुत लोहा है ये जहाज़ बनाने के काम में सबसे ज्यादा आता है. दुनिया में जहाज़ बनाने की सबसे पहली कला और तकनीक भारत में ही विकसित हुई है और दुनिया ने पानी का जहाज़ बनाना भारत से ही सीखा है."
आगे वो कहता है," भारत में समुद्र किनारे बसे ऐसे लाखों गांव हैं जहां पिछले दो हज़ार वर्षों से जहाज़ बनाने का काम हो रहा है.इस्ट इंडिया कंपनी के जितने भी जहाज़ दुनिया में चल रहे हैं वो भारत की ही स्टील के बने हैं.ये कहने में मुझे शर्म आती है कि हम अंग्रेज अभी तक इतनी अच्छी गुणवत्ता(क्वलिटी) का स्टील नहीं बना पाए हैं."
वो आगे कहता है कि, "यदि हम भारत में 50 साल तक चला जहाज़ खरीदते हैं और इस्ट इंडिया कंपनी में चलाते हैं,तो वो भी 20-25 साल आराम से चल जाता है. हम जितने धन में एक नया जहाज़ बनाते हैं भारतीय उतने ही धन में चार नए जहाज़ बना लेते हैं.हमारे लिए तो इनके पुराने जहाज़ ही खरीदना बेहतर है क्यूंकि खुद नए जहाज़ बनाकर हम कंपनी को दीवालिया नहीं कर सकते." यानि कि भारत का पुराना जहाज़ भी उनके नए जहाज़ से बेहतर था.
इसके अलावा वो कहता है,
                       " भारत में तकनीक के स्तर पर ईंट,ईंट से ईंट जोड़ने का चूना और इसके अलावा भारत में  36 तरह के दूसरे टेक्निकल उद्योग हैं. इन सभी उद्योगों में भारत दुनिया में सबसे आगे है.इसलिए हमें भारत से व्यापार करके यह तकनीक लेनी है और यूरोप लाकर फिर से पुनरुत्पादित(रीप्रोड्यूस) करनी है."

1795 में एक अंग्रेज़ सर्वेक्षण के लिए भारत आया. वो लिखता है,"भारत में स्टील बनाने का काम पिछले 1500 वर्षों से हो रहा है. मैं भारत के पश्चिमी,पूर्वी और थोड़े से दक्षिणी इलाके में घूमा और मैंने देखा कि स्टील बनाने के लगभग पन्द्रह हज़ार (15000) छोटे कारखाने भारत में चल रहे हैं. यहाँ हर फैक्ट्री में प्रतिदिन 500 किलो स्टील आराम से बनता है. एक फैक्ट्री 24 घंटे चलती है. मजदूरों की तीन पालियां हैं. हर पाली आठ घंटे काम करती है. इन फैक्ट्रीयों में जो सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है वो है लोहा गलाने वाली भट्टी(ब्लास्ट फर्नेंस). भारत में ये भट्टी 15 रुपये के खर्च में बन जाती है(आज के 15*300=4500रु.). एक भट्टी एक दिन में आराम से 1 टन स्टील बना लेती है और इतनी स्टील बनाने में भारत के कारीगरों का खर्चा मात्र 80रु. आता है."[यानि कि आज(2010) के 80*300=24000रु].
वो आगे लिखता है," सभी 15000 फैक्ट्रीयों में एक दिन में 7500 मीट्रिक टन लोहा बनता है और एक साल में 27. 5 लाख मीट्रिक टन लोहा. इस स्टील की सरिया बनती है और वो यूरोप में बिकने जाती है और वहाँ सबसे महंगे दामों में बिकती है, क्योंकि भारत के स्टील की तुलना में दुनिया का कोई स्टील नहीं ठहरता. इस अदभुत भारतीय स्टील में जंग नहीं लगता. भारत के बाद स्वीडन का स्टील बेहतरीन है लेकिन वहाँ इसे बनाने में 100 गुणा ज़्यादा खर्च आता है, 1 टन स्टील 8000रु में बनता है.
भारत में जो भट्टी बनती है वो काफी हल्की है और बैलगाड़ी में रखकर आराम से लाई व ले जाई जा सकती है. भारतीय भट्टी पोर्टेबल है, वहीं यूरोप में जो भट्टियां हैं वो स्थायी हैं. अगर उन्हें निकालने का प्रयास करें तो वे टूट जाती हैं. इन भारतीयों का ज्ञान अदभुत है. ये साधारण सी भट्टी में 1400 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा कर लेते हैं. भारत का कोयला व कच्चा लोहा भी अदभुत है इसलिए इनका स्टील भी अदभुत है."
ये अंग्रेज़ भारत से स्टील बनाने की कला सीखकर लन्दन गया और वहाँ मैटलर्जी का स्कूल खोला और स्टील बनाने वाला पहला अंग्रेज़ बन गया.

हवाई जहाज़ : भारत की महान तकनीक
हमने सुन रखा है कि 17 दिसम्बर 1903 को अमरीका में कैरोलीना के समुद्र तट पर राइट ब्रदर्स ने पहला हवाई जहाज़ बनाकर उडाया जो 120 फीट उड़ा और गिर गया. फिर उसके बाद आगे हवाई जहाज़ की कहानी शुरू होती है. हम सब बचपन से यही पढ़ते आये हैं.
                 अब जो दस्तावेज़ मिले हैं वो ये बताते हैं कि 1903 से पहले 1895 में शिवकर बापूजी तलपडे जी ने भारत में विश्व का पहला हवाई जहाज़ उडाया था. तलपडे जी का जन्म मुम्बई के चीरा बाज़ार में हुआ. उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की और संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन किया. इसी में उन्होनें महर्षि भारद्वाज की विमान शास्त्र पुस्तक का अध्ययन किया.

महर्षि भारद्वाज का विमान शास्त्र
महर्षि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की सबसे पहली पुस्तक लिखी. उसके बाद उसके आधार पर विमान शास्त्र की सैकड़ों पुस्तकें लिखी गयीं. महर्षि भारद्वाज की जो सबसे पुरानी पुस्तक हमें प्राप्त होती है वो 1500साल पुरानी है, महर्षि भारद्वाज तो उसके भी बहुत सदियों पहले हुए थे. विमान शास्त्र की पुस्तक के बारे में तलपडे जी ने लिखा है कि इस पुस्तक में आठ अध्यायों में विमान बनाने की तकनीक का ही वर्णन है. आठ अध्यायों में सौ खण्ड हैं जिनमें विमान बनाने की तकनीक का विस्तार से वर्णन है. महर्षि ने अपनी पुस्तक में विमान बनाने के 500 सिद्धांत लिखे हैं. आप ज़रा इस बात पर ध्यान दीजियेगा, एक सिद्धांत पर पूरा का पूरा इंजन बन जाता है, और पूरा विमान बन जाता है.यानि कि 500 तरह के विमान बनाये जा सकते हैं. तलपडे जी ने इस पुस्तक के बारे में लिखा है कि इन 500 सिद्धांतों के तीन हज़ार(3000) श्लोक हैं. महर्षि भारद्वाज ने विमान बनाने की 32 प्रक्रियाओं का वर्णन भी किया है. ज़रा ध्यान दीजियेगा, 32 तरीकों से 500 किस्म के विमान बनाए जा सकते हैं. तीन हज़ार श्लोक, सौ खण्ड,आठ अध्याय कितना बड़ा ग्रन्थ है ये. इसे पढ़कर तलपडे जी ने कुछ परीक्षण किये और अंततः वे सफल हुए.
विश्व का पहला विमान
1895 में तलपडे जी सफल हुए, उन्होंने पहला विमान बना लिया और उसे उड़ाकर भी दिखाया. ये काम उन्होंने कई बड़े लोगों की उपस्थिति में किया. मुम्बई हाई कोर्ट के जज महादेव गोविन्द रानाडे, वडोदरा के राजा गायकवाड और ऐसे बीसियों बड़े लोगों और हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने उन्होंने ये परिक्षण किया. हैरानी की बात ये थी कि उस विमान में कोई चालक नहीं था. यानि उस विमान को उडाया होगा तो कंट्रोल सिस्टम तलपडे जी के हाथ में है और विमान उड़ रहा है. उस विमान को वे 1500 फीट तक ले गए और उसे सकुशल उतारा, विमान टूटा नहीं, उसमें आग नहीं लगी, कोई दुर्घटना नहीं हुई. विमान उड़ा, पन्द्रह सौ फीट तक गया और उतर आया. सारी भीड़ ने तलपडे जी को कन्धों पर उठा लिया. महाराजा गायकवाड ने उनको इनाम में जागीर देने की घोषणा की. गोविन्द रानाडे जी ने घोषणाएं कीं, बड़े-बड़े लोगों ने घोषणाएं कीं.
तलपडे जी का कहना था कि वे ऐसे कई विमान बना सकते हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, उनपर पैसे की कमी है. तो लोगों ने पैसे इकट्ठा करने की घोषणा की ताकि तलपडे जी को धन की कमी ना हो. लेकिन तभी उनके साथ एक धोखा हुआ, अंग्रेजो की एक कंपनी रैली ब्रदर्स तलपडे जी के पास आई. उसने उनसे कहा कि आप अपने विमान के कागज़ात हमें दे दीजिए हम आपकी मदद करना चाहते हैं.आपने जो आविष्कार किया है उसे सारी दुनिया के सामने लाना चाहते हैं. हमारी कंपनी काफी पैसा इस काम में लगा सकती है इसलिए आप हमसे समझौता कर लीजिए और विमान का डिजाईन हमको दे दीजिए. तलपडे जी भोले-भाले आदमी थे,चालाकी जानते नहीं थे,मान गए. ये कंपनी उनके विमान के ज़रूरी कागज़ात,विमान का पूरा मॉडल, ड्राइंग और डिजाईन लेकर इंग्लैंड चली गयी. वहाँ जाकर वे अपना समझौता भूल गए. इंग्लैंड से ये कागज़ात अमरीका पहुंचा दिए गए. वहाँ राइट ब्रदर्स ने ये विमान अपने नाम से बनाया और तलपडे जी का नाम सारी दुनिया भूल गयी.
           तलपडे जी की तो मृत्यु पर भी शंका है. शायद उनकी ह्त्या की गयी थी. जिस व्यक्ति के नाम एक बहुत बड़े आविष्कार का नाम जुड़ सकता हो उसकी हत्या करवाने की काफी संभावना बन जाती है. अगर उनकी हत्या की ठीक से जांच हो तो कई बातें सामने आ सकती हैं.

                    तलपडे जी कि गलती क्या थी? उनको चालाकी समझ नहीं आयी. भारत के लोगों को सब आता था. विज्ञान,तकनीक,आध्यात्म,व्यापार सब कुछ आता था. भारतीय ज्ञानी थे,उदार थे,वीर थे,वैभवशाली थे सब कुछ था बस चालाकी नहीं आती थी, और ये अंग्रेज़ और अमरीकी कुछ नहीं जानते थे बस चालाकी आती थी.
                    अब हमें ये बात उठानी चाहिए कि पहला विमान हमने बनाया और अंग्रेज़ कंपनी ने समझौते को भुलाकर जो बेमानी और बदमाशी की उसका हर्जाना रैली ब्रदर्स कंपनी को देना चाहिए. लेकिन ऐसी आवाज़ वही सरकार उठा सकती है जिसे अपने वतन के सम्मान व स्वाभिमान से प्यार हो और जो पूरी हिम्मत से अपना हक मांगने की भावना रखती हो, लेकिन अब तक जो राजनैतिक पार्टियां और सरकारें हमने भारत में देखी हैं उनमें ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आता.

 [ दी गयी जानकारियाँ ब्रह्मलीन श्री राजीव दीक्षित जी की सालों की मेहनत से जुटाए गए और पूर्णतः प्रमाणित सबूतों के आधार पर आधारित हैं ] 
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3. चिकित्सा विज्ञान में भारत की महान देन

चिकित्सा विज्ञान में भारत की महान देन
किसी भी देश के विकास को मापने के दो प्रमुख पैमाने होते हैं, चिकित्सा और स्वस्थ्य. भारत में स्वस्थ्य सबसे अदभुत रहा है क्यूंकि यहाँ चिकित्सा विज्ञान बहुत ही उन्नत किस्म का रहा है.
हज़ारों तरह की आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ और सर्ज़री की विद्या पूरी दुनिया में यहीं से गयी है. अभी जो दस्तावेज़ मिले हैं वे बताते हैं कि भारत में हिमांचल प्रदेश, महाराष्ट्र,कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल ऐसे 7-8 राज्य थे जहां सर्ज़री के सबसे बड़े शोध केन्द्र चला करते थे.  हज़ारों विशेषज्ञ इन केन्द्रों में पढ़कर तैयार होते थे.
आपको जानकार हैरानी होगी कि विश्व का सबसे पहला मोतियाबिंद का ऑपरेशन भारत में ही हुआ. सर्जरी की आधुनिकतम विद्या राय्नोप्लासटी भी भारत में ही बनी व प्रयोग की गयी.

सर्जरी भारत की देन है
हम भारतीयों ने विश्व की सबसे बेहतरीन चिकित्सा व्यवस्था "आयुर्वेदिक चिकित्सा व्यवस्था" विश्व को दी और भारतीयों ने ही सर्जरी की विद्या विश्व को सिखाई. आज विश्व भर में ये कहा जाता है कि दुनिया को सर्ज़री की विद्या इंग्लैंड ने सिखाई. लेकिन इंग्लैंड की "रोयल सोसायटी ऑफ सर्जन" अपने इतिहास में ये लिखती है कि हमनें सर्जेरी भारत से ही सीखी है.
लन्दन में "फैलो ऑफ द रॉयल सोसाइटी" की स्थापना करने वाला अंग्रेज हॉलकॉट 1795 में भारत में मद्रास में आकर सर्जरी सीख कर गया. उसकी डायरी के पन्ने इस बात के गवाह हैं. वो बार-बार ये कहता रहा कि मैंने ये विद्या भारत से सीखी है और फिर मैने इसे पूरे यूरोप को सिखाया है. लेकिन अंग्रेजों ने उसकी शुरू की बात को तो दबा दिया और बाद के वाक्य ' मैने सर्जरी विद्या को पूरे यूरोप को सिखाया है ' का खूब प्रचार किया.
सर्जरी हमारी विद्या है और इसका सबसे पुख्ता प्रमाण हमारे पास मौजूद है "सुश्रुत संहिता" नाम के ग्रन्थ के रूप में. सुश्रुत संहिता हज़ारों वर्ष पुराना ग्रन्थ है और सर्जरी पर ही आधारित है. इसे अगर आप पढेंगे तो जान जायेंगे कि सर्जरी यानि कि शल्य चिकित्सा के लिए जिन यंत्रों और उपकरणों कि ज़रूरत होती है ऐसे 125 यंत्र और उपकरण महर्षि सुश्रुत के समय में आविष्कृत हो चुके थे. आज की आधुनिक सर्जरी में बहुत सारे उपकरण वही हैं जो महर्षि सुश्रुत जी ने बताये थे.

प्लास्टिक सर्जरी भारत की देन
भारत में प्लास्टिक सर्जरी के प्रमाणों को जानने के लिए इतिहास की एक रोचक घटना आपको बताना चाहता हूँ. 18वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हैदर अली नाम का एक महान राजा हुआ करता था, टीपू सुल्तान इन्हीं के पुत्र थे. 1780 से 1784 के बीच में अंग्रेजों ने हैदर अली पर कई हमले किये और हर बार हैदर अली से हारकर गए. इनमें से एक हमले का ज़िक्र एक अंग्रेज़ की डायरी में दर्ज है, उसे बताता हूँ.
1780 में एक अंग्रेज़ अधिकारी कर्नल कूट ने हैदर अली से युद्ध किया. कर्नल कूट हार गया फिर उसके साथ जो हुआ वो सब वो अपनी डायरी में बता रहा है," मैं हार गया और हैदर अली के सैनिक मुझे पकड़कर उसके पास ले गए. वो सिंहासन पर था और में उसके कदमों(चरणों) में. वो चाहता तो मेरी गर्दन काट सकता था, लेकिन  उसनें मेरी नाक काट ली. फिर मुझे छोड दिया गया. मेरी कटी नाक मेरे हाथ में दे दी गयी और एक घोड़े  पर मुझे बैठा दिया गया और कहा गया कि जाओ, भाग जाओ.(नाक काटना भारत में सबसे बड़ी बेईज्ज़ती मन जाता है.) मैं भाग गया और भागते-भागते बेलगाम नाम के एक स्थान पर पहुंचा. वहाँ मेरी कटी नाक देखकर एक वैध मेरे पास आया. मैंने उसके पूंछने पर सारी बात बता दी. वो वैध बोला कि अगर तुम चाहो तो  मैं  तुम्हारी ये कटी हुई नाक जोड़ सकता हूँ. मेरे लिए ये आश्चर्य की बात थी कि कटा हुआ अंग आखिर कैसे जुड़ सकता है? वो मुझे अपने घर ले गया और वहाँ मेरा ऑपरेशन किया." इस ऑपरेशन का तीस(30) पन्नों में उसने अपनी डायरी में विस्तृत वर्णन किया है. आगे वो लिखता है,
                             " ऑपरेशन के बाद मेरी नाक जुड़ गयी. उसने मुझे एक लेप दिया और कहा कि इसे सुबह-शाम नाक पर लगाते रहना. 16-17 दिन में नाक पूरी तरह से ठीक हो गयी."
फिर वो लन्दन चला गया. तीन(3) महीने बाद वो ब्रिटिश संसद में जाकर भाषण दे रहा है और सबसे पहला सवाल वहाँ उपस्थित लोगों से वो करता है कि, "क्या आपको लगता है कि मेरी नाक कटी है?" सब लोग मना करते हैं, कहते है कि तुम्हारी नाक कटी हुई बिल्कुल नहीं लगती. तब कर्नल कूट अपना पूरा किस्सा उन लोगों को बताता है. इसके बाद अंग्रेजों का एक दल उस वैध से मिलने बेलगाम जाता है. बेलगाम में वो वैध उनको मिलता है और वो उससे अंग जोड़ने की विद्या के बारे में पूंछते हैं कि, तुमने ये विद्या कैसे सीखी? तो वैध ने कहा कि आपको तो यहाँ हर गांव में मुझ जैसा वैध मिल जाएगा. उन्होंने पूंछा, तुम्हें ये विद्या किसने सिखाई? तो वैध ने कहा कि हमारे गुरुकुलों में ये विषय पढ़ाया और सिखाया जाता है. तब अंग्रेज़ गुरुकुल में गए और वहाँ दाखिला लिया. वहाँ ये विषय सीखा और यहाँ से सीखकर इंग्लैंड गए.

भारत में अंग्रेजों ने प्लास्टिक सर्जरी सीखी
जिन-जिन अंग्रेजों ने भारत में प्लास्टिक सर्जरी सीखी उनकी डायरियां आज भी इस बात का प्रमाण हैं. एक ऐसा ही प्रसिद्ध अंग्रेज़ था थॉमस क्रूसो वो 1792 में अपनी डायरी में लिखता है कि, " गुरुकुल में मुझे जिस विशेष आदमी ने प्लास्टिक सर्जरी सिखाई वो जाति का नाई था. चर्मकार जाति के बहुत से सर्जन थे. शायद चमड़ी सिलना उन्हें ज्यादा अच्छा आता है." यानि कि 1792 तक हर कोई बिना भेद-भाव के गुरुकुलों में शिक्षा पा रहा था और दे रहा था.ये गुरुकुल पुणे में था जहां इस अंग्रेज़ ने प्लास्टिक सर्जरी सीखी. आगे वो लिखता है कि, " मुझे अच्छे से सिखाने के बाद उस शिक्षक ने मुझसे ऑपरेशन भी करवाया. मैंने अपने शिक्षक के साथ मिलकर एक घायल मराठा सैनिक का ऑपरेशन किया. उसके हाथ युद्ध में कट गए थे. हमारा ऑपरेशन सफल रहा. उसके हाथ जुड़ गए." थॉमस क्रूसो सीखकर इंग्लैंड चला गया. वो लिखता है," इतना अदभुत ज्ञान मैंने किसी से सीखा और इसे सिखाने के लिए किसी ने मुझसे एक पैसा तक नहीं लिया. ये बहुत ही आश्चर्य की बात है." उसका ये कथन इस बात की फिर से पुष्टि करता है कि भारत में शिक्षा हमेशा मुफ्त रही है और उसका यहाँ पढ़ना ये साबित करता है कि भारत में बिना भेद-भाव के सभी को शिक्षा मिला करती थी.
इंग्लैंड जाकर थॉमस क्रूसो ने एक स्कूल खोला और वहाँ सर्जरी सिखाना शुरू कर दिया. दुर्भाग्य है कि प्लास्टिक सर्जरी के विश्व ग्रंथों में उस स्कूल का तो वर्णन है लेकिन उस गुरुकुल का, उस शिक्षक का, भारत का वर्णन नहीं है.

चेचक का टीका और टीके का सिद्धांत
1710 में डॉक्टर ऑलिवर भारत में आया और पूरे बंगाल में घूमा. उसके बाद वो अपनी डायरी में लिखता है," मैंने भारत में आकार ये पहली बार देखा कि चेचक जैसी महामारी को कितनी आसानी से भारतवासी ठीक कर लेते हैं." चेचक उस समय यूरोप के लोगों के लिए महामारी ही थी. इस बीमारी से लाखों यूरोपवासी मर गए थे. उस समय में वो लिखता है कि यहाँ लोग चेचक के टीके लगवाते हैं. वो लिखता है कि,"टीका एक सुई जैसी चीज़ से लगाया जाता था. इसके बाद तीन दिन तक उस व्यक्ति को थोड़ा बुखार आता था. बुखार ठीक करने के लिए पानी की पट्टियां रखी जाती थीं. तीन दिन में वो व्यक्ति ठीक हो जाता था. एक बार जिसने टीका ले लिया वो ज़िंदगी भर चेचक से मुक्त रहता था.
फिर ये डॉक्टर वापस लन्दन गया. डॉक्टरों की सभा बुलाई. सभा में भारत में चेचक के टीके की बात बताई. जब लोगों को यकीन नही हुआ तो वो उन सभी डॉक्टरों को भारत लाया. यहाँ उन लोगों ने भी टीके को देखा. फिर उन लोगों ने भारतीय वैद्यों से पूंछा कि इस टीके में क्या है? तो उन वैद्यों ने बताया कि जो लोग चेचक के रोगी होते हैं हम उनके शरीर का पस निकाल लेते हैं और सुई की नोंक के बराबर यानि कि बहुत ज़रा सा पस किसी के शरीर में प्रवेश करा देते हैं. और फिर उस व्यक्ति का शरीर इस रोग की प्रतिरोधक क्षमता धारण कर लेता है.
डॉ.ऑलिवर आगे लिखता, "जब मैंने इन वैद्यों से पूंछा कि आपको ये सब किसने सिखाया? तो वे बोले कि हमारे गुरु ने. उनके गुरु को उनके गुरु ने सिखाया.मेरे अनुसार कम से कम डेढ़ हज़ार(1500) वर्षों से ये टीका भारत में लगाया जा रहा है."
डायरी के अंत में वो लिखता है, "हमें भारत के वैद्यों का अभिनन्दन करना चाहिए कि वे निशुल्क रूप से घरों में जा-जाकर लोगों को टीका लगा रहे हैं. हम अंग्रेजों को इन वैद्यों ने बिना किसी शुल्क(फीस) के ये विद्या सिखाई है, हमें इनका जितना हो सके उतना आभार करना चाहिए."
आज सारी दुनिया में जिस डॉ.ऑलिवर को चेचक के टीके का जनक माना जाता है वो खुद अपनी डायरी में भारत के वैज्ञानिकों को इस टीके का जनक स्वीकार कर रहा है.

औषधियों का ज्ञान
भारत के महान महर्षियों,आचार्यों ने अपना पूरा जीवन लगाकर हज़ारों किस्म की औषधियों को खोजा,उनकी प्रयोग विधि को बताया, उनके गुण-धर्म बताये. आज पूरा विश्व उनकी बताई औषधियों से लाभ ले रहा है. आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपेथी में आज भी जो रोग लाईलाज हैं वो आयुर्वेद की ये औषधियां पूरी तरह से ठीक कर देती हैं. सबसे अच्छी बात ये कि इन औषधियों को आप अपने घर में ही पा सकते हैं. भारतीयों ने ही दुनिया को बताया कि अनार के जूस से खून बढ़ जाता है, हरड से पेट ठीक रहता है, ऐसी हज़ारों चीज़ें भारतीयों ने बताई हैं.
आजकल हम कुछ चीज़ों को मसाला कहते हैं.मसाला शब्द हमारा नहीं है, ये तो फारसी शब्द है. हम तो औषधि कहते हैं. जैसे काली मिर्च,तेज पत्ता,दाल चीनी,या हल्दी हमारे लिए मसाला नहीं औषधि हैं. और इन औषधियों का भारतीयों के दैनिक जीवन में प्रयोग होता रहा है. सदियों से हो रहे हमारे पतन के बावजूद आज भी हमारे जीवन में इन औषधियों का प्रयोग हो रहा है. किस रोग में कौन सी औषधि लेनी है, कब लेनी है, कितनी मात्रा में लेनी है, कैसे लेनी है, ये सब हमारे महान पूर्वजों ने अपनी पूरी ज़िंदगी लगाकर दुनिया के लिए उपलब्ध कराया और वो भी बिना किसी लालच या धन की इच्छा के. महर्षि चरक का नाम इसमें सर्वोपरि है.जर्मनी में महर्षि चरक के नाम पर एक पूरा विभाग बनाया गया है, इसको वे लोग बोलते हैं "चरकोलॉजी".

स्वस्थ जीवन के सूत्र
महर्षि बाणभट्ट वो पहले व्यक्ति थे जिन्होनें दुनिया को बताया कि खाना कैसे खाएं, पानी कैसे पियें, कैसे चलें,उठें,बैठें,लेटें आदि. उन्होनें अष्टांग ह्रदयम्, अष्टांग संग्रहम्, में ऐसे अनेकों सूत्र लिखे हैं. उदहारण के लिए इसका एक सूत्र पढ़ते हैं,
महर्षि बाणभट्ट लिखते हैं कि भोजन बनाते समय सूर्य का प्रकाश और वायु का स्पर्श भोजन को मिलना चाहिए. अब दुनिया के कई वैज्ञानिक इन सूत्रों की गहराई जानने में लगे हैं. अब वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ये सूत्र एकदम सही है. भोजन को अगर बिना सूर्य के प्रकाश और वायु के स्पर्श के पकाया जाता है तो उसमें पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं. उनका कहना है कि प्रेशर कुकर में बने भोजन को खाने से मधुमेह(डाईबिटीज) होने की संभावना बढ़ जाती है. इसके अलावा जोड़ों का दर्द, हृदयघात(हार्ट अटैक) की भी संभावना बढ़ जाती है. हम प्रेशर कुकर में दाल बनाते हैं ताकि दाल जल्दी पक जाए लेकिन वास्तव में दाल पकती नहीं है वो पानी और हवा के दबाव में टूट जाती है और हम सोचते हैं कि दाल पक गयी. दाल का पकना और दाल का टूटना दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं. दाल के पकने का मतलब है उसके अंदर के सूक्ष्म पोषक तत्व आपके प्रयोग लायक हो जाएँ. वहीं टूटी हुई दाल से पोषक तत्व नहीं मिलते, गंभीर बीमारियाँ मिलती हैं.
अब हम ज़रा पुरानी बातें याद करें. पहले हमारे गाँवों में माताएं मिट्टी की हंडिया में खाना पकाती थीं. याद कीजिये खाना पकाते समय उस हंडिया को आधा खोलकर रखा जाता था. उसका ढक्कन आधा खुला रहता था.क्योंकि हवा का स्पर्श करवाना होता था. घर का चूल्हा अक्सर खुले में होता था ताकि सूर्य का प्रकाश मिल सके. इस तरीके से दाल को पकने में समय लगता है और समय लगना भी चाहिए क्योंकि आज का विज्ञान जो कह रहा है वो हज़ारों साल पहले हमारे महर्षि कह गए. महर्षि भारद्वाज अपने सूत्रों में कहते हैं कि जो वस्तु खेत में देर में पकती है वो भोजन में भी देर में पकेगी. दाल खेत में देर से ही पकती है, तो वो भोजन बनाते समय भी देर में ही पकनी चाहिए तभी वो पौष्टिक और स्वादिष्ट होगी. हम जल्दी के चक्कर में प्रेशर कुकर उठा लाये हैं और बीमारियों को बुला लाये हैं.
एक और सूत्र का उदाहरण देना चाहता हूँ, ये सूत्र है,उषापान. यानि कि सुबह उठकर सबसे पहले पानी पीएं. जापानियों ने इस सूत्र पर सबसे ज्यादा शोध किया है. आप हैरान हो जायेंगे कि उन लोगों ने ४० सालों तक इस सूत्र पर शोध किया और अरबों डॉलर इस पर फूंक दिए. और फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ये सूत्र एकदम सही है. वहीं हमारे महर्षि हज़ारों साल पहले ये सब मुफ्त में बता गए. सुबह उठकर पानी पीने से मुंह में जो रात भर की लार बनी होती है वो पानी के साथ पेट में चली जाती है. लार क्षारीय(अल्कलाइन) होती है और पेट में अम्ल(एसिड) बनता है.क्षारीय और अम्ल एक दूसरे को शांत करते हैं. जिनके पेट का अम्ल शांत है उनके रक्त में अम्ल नहीं बनेगा, जिनके रक्त में अम्ल नहीं बनेगा उन्हें सैकड़ों बीमारियाँ नहीं होंगी. सुबह पानी पीने का दूसरा फायदा ये है कि ये पानी बड़ी आंत में जाता है, उसे साफ़ करता है और आप संडास घर में जाकर 2-4 मिनट में बाहर आ जाते हैं. हमारे ऋषि-मुनि कहते थे कि जो लोग सबसे ज्यादा स्वस्थ होते हैं उन्हें संडास घर में सबसे कम समय लगता है.

ऐसे हज़ारों सूत्र हमारे ऋषि-मुनि बता गए और आज विश्व भर के वैज्ञानिक अरबों रुपये और कई साल लगाकर उस पर शोध कर रहे हैं. लेकिन हमारी समस्या ये रही कि हमने ये कभी नहीं माना कि इन छोटी-छोटी बातों में कोई बड़ा विज्ञान छुपा हुआ है. लेकिन जब हम देखते हैं कि दूसरे देश इन पर अरबों डॉलर खर्च करके शोध कर रहे हैं और उसी नतीजे पर पहुँच रहे हैं जो हमारे पास पहले से था, तब हमें गर्व की अनुभूती होती है कि ये तो हमने जान रखा है,कर रखा है.

ऐलोपैथी की अयोग्यता
एलोपैथी 200-250 वर्ष पुरानी चिकित्सा व्यवस्था है. इसने मात्र एक चीज़ दी है, दर्द से लड़ना.ये बस यही कर रहे हैं दर्द या रोग में कमी, उससे लड़ना या उस पर काबू करना. किसी बड़े रोग को जड-मूल से नष्ट करना इसके बस में नहीं. जीवन भर आप दवा खाते रहिये, जैसे ही दवा बंद की बीमारी शुरू. फिर दवा के साइड इफेक्ट होने लगते हैं और उनसे कोई दूसरी बीमारी शुरू हो जाती हैं. फिर उसकी दवा लो,फिर उसके साइड इफेक्ट होंगे. दवा महंगी है, डॉक्टर की फीस महंगी है और रोगी इसमें लुटता रहता है. आपको ब्लड प्रेशर है या शुगर की बीमारी है तो एलोपैथी में ये बीमारी लाईलाज है, ये काबू में रखी जा सकती है लेकिन ठीक नहीं की जा सकती. वहीं आयुर्वेद कि औषधियों में ये ही नहीं इनसे भी बड़ी-बड़ी बीमारियाँ पूरी तरह सही की जा सकती हैं. वो भी बहुत कम खर्चे में.
एलोपैथी से अमरीका के राष्ट्रपति की मृत्यु  
अमेरिका 1776 में अंग्रेजों से आज़ाद हुआ और जॉर्ज वॉशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने. यूरोप और अमेरिका ठण्ड  वाले इलाके हैं. सूर्य का प्रकाश यहाँ कम प्राप्त होता है,धूप यहाँ बहुत कम निकलती है इसलिए यहाँ वाईरल और बैक्टीरियल संक्रमण बहुत ज़्यादा होते हैं, इसलिए जो एंटी वाईरल और एंटी बैक्टीरिअल एलोपेथी दवाएं हैं वो  सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों ने खोजी हैं.
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन एक बार बीमार पद गए, उन्हें बुखार आ गया. उस समय के सारे देश और दुनिया के ऐलोपैथी के बड़े डॉक्टर जॉर्ज वॉशिंगटन की बीमारी का इलाज ढूँढने लगे, बहुत उपाय करे लेकिन वो राष्ट्रपति का बुखार कम नहीं कर पाए. ज्वर(बुखार) बढ़ता ही जा रहा था. अंत में सभी ने मिलकर ये फैसला किया कि राष्ट्रपति जी के शरीर में खराब खून घुस गया है और जबतक खराब रक्त(खून) को नहीं निकाला जाता तब तक ज्वर ठीक नहीं होगा. तो उन महानुभावों नें राष्ट्रपति के हाथ-पाँव पलंग से बाँध दिए और शरीर से रक्त निकालने के लिए उनके हाथों की नसों को काट दिया. राष्ट्रपति चीखता रहा, पूंछता रहा कि ये सब क्या कर रहे हो? डॉक्टर कहते रहे कि चिंता न करें आपका इलाज हो रहा है. रात भर खून बहता रहा. गंदे के साथ अच्छा खून भी निकल गया और सवेरे राष्ट्रपति की मृत्यु हो गयी. ये बात 1776 के आस-पास की है. जिस समय एलोपेथी में बुखार ठीक करने के लिए लोगों की नसें और नाडियाँ काटी जा रही थीं उस समय भारत में नीम की गिलोय का काढा पिलाकर बड़े से बड़ा ज्वर ठीक कर दिया जाता था, और एक नहीं ऐसे सैकड़ों उपाय भारत में थे हर रोग के लिए.

यूनानी चिकित्सा पद्धति यूनान में विकसित हुई. यूनानी पद्धति के सभी बड़े शोधक(रिसर्चर) ईमानदारी से ये स्वीकार करते हैं कि हमने ये सब आयुर्वेद से सीखा है, भारत से सीखा है. उनके सूत्र भी हमारे
जैसे हैं, बस यूनानी आबोहवा के अनुसार उनमें उन्होनें कुछ बदलाव कर लिए.

 [ दी गयी जानकारियाँ ब्रह्मलीन श्री राजीव दीक्षित जी की सालों की मेहनत से जुटाए गए और पूर्णतः प्रमाणित सबूतों के आधार पर आधारित हैं ] 
[ राजीव जी की सीडियों के लिए किसी भी पतंजली चिकित्सालय से संपर्क करें और भारत स्वाभिमान शंखनाद नाम से बीस सीडियों का पैकेट वहां आपको मिल जायेगा, इनमें बहुत सी ज़रूरी जानकारियाँ आपको अपने देश, इतिहास और राजनीति के बारे में पता चलेंगी].