चिकित्सा विज्ञान में भारत की महान देन
किसी भी देश के विकास को मापने के दो प्रमुख पैमाने होते हैं, चिकित्सा और स्वस्थ्य. भारत में स्वस्थ्य सबसे अदभुत रहा है क्यूंकि यहाँ चिकित्सा विज्ञान बहुत ही उन्नत किस्म का रहा है.
हज़ारों तरह की आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ और सर्ज़री की विद्या पूरी दुनिया में यहीं से गयी है. अभी जो दस्तावेज़ मिले हैं वे बताते हैं कि भारत में हिमांचल प्रदेश, महाराष्ट्र,कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल ऐसे 7-8 राज्य थे जहां सर्ज़री के सबसे बड़े शोध केन्द्र चला करते थे. हज़ारों विशेषज्ञ इन केन्द्रों में पढ़कर तैयार होते थे.
आपको जानकार हैरानी होगी कि विश्व का सबसे पहला मोतियाबिंद का ऑपरेशन भारत में ही हुआ. सर्जरी की आधुनिकतम विद्या राय्नोप्लासटी भी भारत में ही बनी व प्रयोग की गयी.
सर्जरी भारत की देन है
हम भारतीयों ने विश्व की सबसे बेहतरीन चिकित्सा व्यवस्था "आयुर्वेदिक चिकित्सा व्यवस्था" विश्व को दी और भारतीयों ने ही सर्जरी की विद्या विश्व को सिखाई. आज विश्व भर में ये कहा जाता है कि दुनिया को सर्ज़री की विद्या इंग्लैंड ने सिखाई. लेकिन इंग्लैंड की "रोयल सोसायटी ऑफ सर्जन" अपने इतिहास में ये लिखती है कि हमनें सर्जेरी भारत से ही सीखी है.
लन्दन में "फैलो ऑफ द रॉयल सोसाइटी" की स्थापना करने वाला अंग्रेज हॉलकॉट 1795 में भारत में मद्रास में आकर सर्जरी सीख कर गया. उसकी डायरी के पन्ने इस बात के गवाह हैं. वो बार-बार ये कहता रहा कि मैंने ये विद्या भारत से सीखी है और फिर मैने इसे पूरे यूरोप को सिखाया है. लेकिन अंग्रेजों ने उसकी शुरू की बात को तो दबा दिया और बाद के वाक्य ' मैने सर्जरी विद्या को पूरे यूरोप को सिखाया है ' का खूब प्रचार किया.
सर्जरी हमारी विद्या है और इसका सबसे पुख्ता प्रमाण हमारे पास मौजूद है "सुश्रुत संहिता" नाम के ग्रन्थ के रूप में. सुश्रुत संहिता हज़ारों वर्ष पुराना ग्रन्थ है और सर्जरी पर ही आधारित है. इसे अगर आप पढेंगे तो जान जायेंगे कि सर्जरी यानि कि शल्य चिकित्सा के लिए जिन यंत्रों और उपकरणों कि ज़रूरत होती है ऐसे 125 यंत्र और उपकरण महर्षि सुश्रुत के समय में आविष्कृत हो चुके थे. आज की आधुनिक सर्जरी में बहुत सारे उपकरण वही हैं जो महर्षि सुश्रुत जी ने बताये थे.
प्लास्टिक सर्जरी भारत की देन
भारत में प्लास्टिक सर्जरी के प्रमाणों को जानने के लिए इतिहास की एक रोचक घटना आपको बताना चाहता हूँ. 18वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हैदर अली नाम का एक महान राजा हुआ करता था, टीपू सुल्तान इन्हीं के पुत्र थे. 1780 से 1784 के बीच में अंग्रेजों ने हैदर अली पर कई हमले किये और हर बार हैदर अली से हारकर गए. इनमें से एक हमले का ज़िक्र एक अंग्रेज़ की डायरी में दर्ज है, उसे बताता हूँ.
1780 में एक अंग्रेज़ अधिकारी कर्नल कूट ने हैदर अली से युद्ध किया. कर्नल कूट हार गया फिर उसके साथ जो हुआ वो सब वो अपनी डायरी में बता रहा है," मैं हार गया और हैदर अली के सैनिक मुझे पकड़कर उसके पास ले गए. वो सिंहासन पर था और में उसके कदमों(चरणों) में. वो चाहता तो मेरी गर्दन काट सकता था, लेकिन उसनें मेरी नाक काट ली. फिर मुझे छोड दिया गया. मेरी कटी नाक मेरे हाथ में दे दी गयी और एक घोड़े पर मुझे बैठा दिया गया और कहा गया कि जाओ, भाग जाओ.(नाक काटना भारत में सबसे बड़ी बेईज्ज़ती मन जाता है.) मैं भाग गया और भागते-भागते बेलगाम नाम के एक स्थान पर पहुंचा. वहाँ मेरी कटी नाक देखकर एक वैध मेरे पास आया. मैंने उसके पूंछने पर सारी बात बता दी. वो वैध बोला कि अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारी ये कटी हुई नाक जोड़ सकता हूँ. मेरे लिए ये आश्चर्य की बात थी कि कटा हुआ अंग आखिर कैसे जुड़ सकता है? वो मुझे अपने घर ले गया और वहाँ मेरा ऑपरेशन किया." इस ऑपरेशन का तीस(30) पन्नों में उसने अपनी डायरी में विस्तृत वर्णन किया है. आगे वो लिखता है,
" ऑपरेशन के बाद मेरी नाक जुड़ गयी. उसने मुझे एक लेप दिया और कहा कि इसे सुबह-शाम नाक पर लगाते रहना. 16-17 दिन में नाक पूरी तरह से ठीक हो गयी."
फिर वो लन्दन चला गया. तीन(3) महीने बाद वो ब्रिटिश संसद में जाकर भाषण दे रहा है और सबसे पहला सवाल वहाँ उपस्थित लोगों से वो करता है कि, "क्या आपको लगता है कि मेरी नाक कटी है?" सब लोग मना करते हैं, कहते है कि तुम्हारी नाक कटी हुई बिल्कुल नहीं लगती. तब कर्नल कूट अपना पूरा किस्सा उन लोगों को बताता है. इसके बाद अंग्रेजों का एक दल उस वैध से मिलने बेलगाम जाता है. बेलगाम में वो वैध उनको मिलता है और वो उससे अंग जोड़ने की विद्या के बारे में पूंछते हैं कि, तुमने ये विद्या कैसे सीखी? तो वैध ने कहा कि आपको तो यहाँ हर गांव में मुझ जैसा वैध मिल जाएगा. उन्होंने पूंछा, तुम्हें ये विद्या किसने सिखाई? तो वैध ने कहा कि हमारे गुरुकुलों में ये विषय पढ़ाया और सिखाया जाता है. तब अंग्रेज़ गुरुकुल में गए और वहाँ दाखिला लिया. वहाँ ये विषय सीखा और यहाँ से सीखकर इंग्लैंड गए.
भारत में अंग्रेजों ने प्लास्टिक सर्जरी सीखी
जिन-जिन अंग्रेजों ने भारत में प्लास्टिक सर्जरी सीखी उनकी डायरियां आज भी इस बात का प्रमाण हैं. एक ऐसा ही प्रसिद्ध अंग्रेज़ था थॉमस क्रूसो वो 1792 में अपनी डायरी में लिखता है कि, " गुरुकुल में मुझे जिस विशेष आदमी ने प्लास्टिक सर्जरी सिखाई वो जाति का नाई था. चर्मकार जाति के बहुत से सर्जन थे. शायद चमड़ी सिलना उन्हें ज्यादा अच्छा आता है." यानि कि 1792 तक हर कोई बिना भेद-भाव के गुरुकुलों में शिक्षा पा रहा था और दे रहा था.ये गुरुकुल पुणे में था जहां इस अंग्रेज़ ने प्लास्टिक सर्जरी सीखी. आगे वो लिखता है कि, " मुझे अच्छे से सिखाने के बाद उस शिक्षक ने मुझसे ऑपरेशन भी करवाया. मैंने अपने शिक्षक के साथ मिलकर एक घायल मराठा सैनिक का ऑपरेशन किया. उसके हाथ युद्ध में कट गए थे. हमारा ऑपरेशन सफल रहा. उसके हाथ जुड़ गए." थॉमस क्रूसो सीखकर इंग्लैंड चला गया. वो लिखता है," इतना अदभुत ज्ञान मैंने किसी से सीखा और इसे सिखाने के लिए किसी ने मुझसे एक पैसा तक नहीं लिया. ये बहुत ही आश्चर्य की बात है." उसका ये कथन इस बात की फिर से पुष्टि करता है कि भारत में शिक्षा हमेशा मुफ्त रही है और उसका यहाँ पढ़ना ये साबित करता है कि भारत में बिना भेद-भाव के सभी को शिक्षा मिला करती थी.
इंग्लैंड जाकर थॉमस क्रूसो ने एक स्कूल खोला और वहाँ सर्जरी सिखाना शुरू कर दिया. दुर्भाग्य है कि प्लास्टिक सर्जरी के विश्व ग्रंथों में उस स्कूल का तो वर्णन है लेकिन उस गुरुकुल का, उस शिक्षक का, भारत का वर्णन नहीं है.
चेचक का टीका और टीके का सिद्धांत
1710 में डॉक्टर ऑलिवर भारत में आया और पूरे बंगाल में घूमा. उसके बाद वो अपनी डायरी में लिखता है," मैंने भारत में आकार ये पहली बार देखा कि चेचक जैसी महामारी को कितनी आसानी से भारतवासी ठीक कर लेते हैं." चेचक उस समय यूरोप के लोगों के लिए महामारी ही थी. इस बीमारी से लाखों यूरोपवासी मर गए थे. उस समय में वो लिखता है कि यहाँ लोग चेचक के टीके लगवाते हैं. वो लिखता है कि,"टीका एक सुई जैसी चीज़ से लगाया जाता था. इसके बाद तीन दिन तक उस व्यक्ति को थोड़ा बुखार आता था. बुखार ठीक करने के लिए पानी की पट्टियां रखी जाती थीं. तीन दिन में वो व्यक्ति ठीक हो जाता था. एक बार जिसने टीका ले लिया वो ज़िंदगी भर चेचक से मुक्त रहता था.
फिर ये डॉक्टर वापस लन्दन गया. डॉक्टरों की सभा बुलाई. सभा में भारत में चेचक के टीके की बात बताई. जब लोगों को यकीन नही हुआ तो वो उन सभी डॉक्टरों को भारत लाया. यहाँ उन लोगों ने भी टीके को देखा. फिर उन लोगों ने भारतीय वैद्यों से पूंछा कि इस टीके में क्या है? तो उन वैद्यों ने बताया कि जो लोग चेचक के रोगी होते हैं हम उनके शरीर का पस निकाल लेते हैं और सुई की नोंक के बराबर यानि कि बहुत ज़रा सा पस किसी के शरीर में प्रवेश करा देते हैं. और फिर उस व्यक्ति का शरीर इस रोग की प्रतिरोधक क्षमता धारण कर लेता है.
डॉ.ऑलिवर आगे लिखता, "जब मैंने इन वैद्यों से पूंछा कि आपको ये सब किसने सिखाया? तो वे बोले कि हमारे गुरु ने. उनके गुरु को उनके गुरु ने सिखाया.मेरे अनुसार कम से कम डेढ़ हज़ार(1500) वर्षों से ये टीका भारत में लगाया जा रहा है."
डायरी के अंत में वो लिखता है, "हमें भारत के वैद्यों का अभिनन्दन करना चाहिए कि वे निशुल्क रूप से घरों में जा-जाकर लोगों को टीका लगा रहे हैं. हम अंग्रेजों को इन वैद्यों ने बिना किसी शुल्क(फीस) के ये विद्या सिखाई है, हमें इनका जितना हो सके उतना आभार करना चाहिए."
आज सारी दुनिया में जिस डॉ.ऑलिवर को चेचक के टीके का जनक माना जाता है वो खुद अपनी डायरी में भारत के वैज्ञानिकों को इस टीके का जनक स्वीकार कर रहा है.
औषधियों का ज्ञान
भारत के महान महर्षियों,आचार्यों ने अपना पूरा जीवन लगाकर हज़ारों किस्म की औषधियों को खोजा,उनकी प्रयोग विधि को बताया, उनके गुण-धर्म बताये. आज पूरा विश्व उनकी बताई औषधियों से लाभ ले रहा है. आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपेथी में आज भी जो रोग लाईलाज हैं वो आयुर्वेद की ये औषधियां पूरी तरह से ठीक कर देती हैं. सबसे अच्छी बात ये कि इन औषधियों को आप अपने घर में ही पा सकते हैं. भारतीयों ने ही दुनिया को बताया कि अनार के जूस से खून बढ़ जाता है, हरड से पेट ठीक रहता है, ऐसी हज़ारों चीज़ें भारतीयों ने बताई हैं.
आजकल हम कुछ चीज़ों को मसाला कहते हैं.मसाला शब्द हमारा नहीं है, ये तो फारसी शब्द है. हम तो औषधि कहते हैं. जैसे काली मिर्च,तेज पत्ता,दाल चीनी,या हल्दी हमारे लिए मसाला नहीं औषधि हैं. और इन औषधियों का भारतीयों के दैनिक जीवन में प्रयोग होता रहा है. सदियों से हो रहे हमारे पतन के बावजूद आज भी हमारे जीवन में इन औषधियों का प्रयोग हो रहा है. किस रोग में कौन सी औषधि लेनी है, कब लेनी है, कितनी मात्रा में लेनी है, कैसे लेनी है, ये सब हमारे महान पूर्वजों ने अपनी पूरी ज़िंदगी लगाकर दुनिया के लिए उपलब्ध कराया और वो भी बिना किसी लालच या धन की इच्छा के. महर्षि चरक का नाम इसमें सर्वोपरि है.जर्मनी में महर्षि चरक के नाम पर एक पूरा विभाग बनाया गया है, इसको वे लोग बोलते हैं "चरकोलॉजी".
स्वस्थ जीवन के सूत्र
महर्षि बाणभट्ट वो पहले व्यक्ति थे जिन्होनें दुनिया को बताया कि खाना कैसे खाएं, पानी कैसे पियें, कैसे चलें,उठें,बैठें,लेटें आदि. उन्होनें अष्टांग ह्रदयम्, अष्टांग संग्रहम्, में ऐसे अनेकों सूत्र लिखे हैं. उदहारण के लिए इसका एक सूत्र पढ़ते हैं,
महर्षि बाणभट्ट लिखते हैं कि भोजन बनाते समय सूर्य का प्रकाश और वायु का स्पर्श भोजन को मिलना चाहिए. अब दुनिया के कई वैज्ञानिक इन सूत्रों की गहराई जानने में लगे हैं. अब वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ये सूत्र एकदम सही है. भोजन को अगर बिना सूर्य के प्रकाश और वायु के स्पर्श के पकाया जाता है तो उसमें पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं. उनका कहना है कि प्रेशर कुकर में बने भोजन को खाने से मधुमेह(डाईबिटीज) होने की संभावना बढ़ जाती है. इसके अलावा जोड़ों का दर्द, हृदयघात(हार्ट अटैक) की भी संभावना बढ़ जाती है. हम प्रेशर कुकर में दाल बनाते हैं ताकि दाल जल्दी पक जाए लेकिन वास्तव में दाल पकती नहीं है वो पानी और हवा के दबाव में टूट जाती है और हम सोचते हैं कि दाल पक गयी. दाल का पकना और दाल का टूटना दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं. दाल के पकने का मतलब है उसके अंदर के सूक्ष्म पोषक तत्व आपके प्रयोग लायक हो जाएँ. वहीं टूटी हुई दाल से पोषक तत्व नहीं मिलते, गंभीर बीमारियाँ मिलती हैं.
अब हम ज़रा पुरानी बातें याद करें. पहले हमारे गाँवों में माताएं मिट्टी की हंडिया में खाना पकाती थीं. याद कीजिये खाना पकाते समय उस हंडिया को आधा खोलकर रखा जाता था. उसका ढक्कन आधा खुला रहता था.क्योंकि हवा का स्पर्श करवाना होता था. घर का चूल्हा अक्सर खुले में होता था ताकि सूर्य का प्रकाश मिल सके. इस तरीके से दाल को पकने में समय लगता है और समय लगना भी चाहिए क्योंकि आज का विज्ञान जो कह रहा है वो हज़ारों साल पहले हमारे महर्षि कह गए. महर्षि भारद्वाज अपने सूत्रों में कहते हैं कि जो वस्तु खेत में देर में पकती है वो भोजन में भी देर में पकेगी. दाल खेत में देर से ही पकती है, तो वो भोजन बनाते समय भी देर में ही पकनी चाहिए तभी वो पौष्टिक और स्वादिष्ट होगी. हम जल्दी के चक्कर में प्रेशर कुकर उठा लाये हैं और बीमारियों को बुला लाये हैं.
एक और सूत्र का उदाहरण देना चाहता हूँ, ये सूत्र है,उषापान. यानि कि सुबह उठकर सबसे पहले पानी पीएं. जापानियों ने इस सूत्र पर सबसे ज्यादा शोध किया है. आप हैरान हो जायेंगे कि उन लोगों ने ४० सालों तक इस सूत्र पर शोध किया और अरबों डॉलर इस पर फूंक दिए. और फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ये सूत्र एकदम सही है. वहीं हमारे महर्षि हज़ारों साल पहले ये सब मुफ्त में बता गए. सुबह उठकर पानी पीने से मुंह में जो रात भर की लार बनी होती है वो पानी के साथ पेट में चली जाती है. लार क्षारीय(अल्कलाइन) होती है और पेट में अम्ल(एसिड) बनता है.क्षारीय और अम्ल एक दूसरे को शांत करते हैं. जिनके पेट का अम्ल शांत है उनके रक्त में अम्ल नहीं बनेगा, जिनके रक्त में अम्ल नहीं बनेगा उन्हें सैकड़ों बीमारियाँ नहीं होंगी. सुबह पानी पीने का दूसरा फायदा ये है कि ये पानी बड़ी आंत में जाता है, उसे साफ़ करता है और आप संडास घर में जाकर 2-4 मिनट में बाहर आ जाते हैं. हमारे ऋषि-मुनि कहते थे कि जो लोग सबसे ज्यादा स्वस्थ होते हैं उन्हें संडास घर में सबसे कम समय लगता है.
ऐसे हज़ारों सूत्र हमारे ऋषि-मुनि बता गए और आज विश्व भर के वैज्ञानिक अरबों रुपये और कई साल लगाकर उस पर शोध कर रहे हैं. लेकिन हमारी समस्या ये रही कि हमने ये कभी नहीं माना कि इन छोटी-छोटी बातों में कोई बड़ा विज्ञान छुपा हुआ है. लेकिन जब हम देखते हैं कि दूसरे देश इन पर अरबों डॉलर खर्च करके शोध कर रहे हैं और उसी नतीजे पर पहुँच रहे हैं जो हमारे पास पहले से था, तब हमें गर्व की अनुभूती होती है कि ये तो हमने जान रखा है,कर रखा है.
ऐलोपैथी की अयोग्यता
एलोपैथी 200-250 वर्ष पुरानी चिकित्सा व्यवस्था है. इसने मात्र एक चीज़ दी है, दर्द से लड़ना.ये बस यही कर रहे हैं दर्द या रोग में कमी, उससे लड़ना या उस पर काबू करना. किसी बड़े रोग को जड-मूल से नष्ट करना इसके बस में नहीं. जीवन भर आप दवा खाते रहिये, जैसे ही दवा बंद की बीमारी शुरू. फिर दवा के साइड इफेक्ट होने लगते हैं और उनसे कोई दूसरी बीमारी शुरू हो जाती हैं. फिर उसकी दवा लो,फिर उसके साइड इफेक्ट होंगे. दवा महंगी है, डॉक्टर की फीस महंगी है और रोगी इसमें लुटता रहता है. आपको ब्लड प्रेशर है या शुगर की बीमारी है तो एलोपैथी में ये बीमारी लाईलाज है, ये काबू में रखी जा सकती है लेकिन ठीक नहीं की जा सकती. वहीं आयुर्वेद कि औषधियों में ये ही नहीं इनसे भी बड़ी-बड़ी बीमारियाँ पूरी तरह सही की जा सकती हैं. वो भी बहुत कम खर्चे में.
एलोपैथी से अमरीका के राष्ट्रपति की मृत्यु
अमेरिका 1776 में अंग्रेजों से आज़ाद हुआ और जॉर्ज वॉशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने. यूरोप और अमेरिका ठण्ड वाले इलाके हैं. सूर्य का प्रकाश यहाँ कम प्राप्त होता है,धूप यहाँ बहुत कम निकलती है इसलिए यहाँ वाईरल और बैक्टीरियल संक्रमण बहुत ज़्यादा होते हैं, इसलिए जो एंटी वाईरल और एंटी बैक्टीरिअल एलोपेथी दवाएं हैं वो सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों ने खोजी हैं.
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन एक बार बीमार पद गए, उन्हें बुखार आ गया. उस समय के सारे देश और दुनिया के ऐलोपैथी के बड़े डॉक्टर जॉर्ज वॉशिंगटन की बीमारी का इलाज ढूँढने लगे, बहुत उपाय करे लेकिन वो राष्ट्रपति का बुखार कम नहीं कर पाए. ज्वर(बुखार) बढ़ता ही जा रहा था. अंत में सभी ने मिलकर ये फैसला किया कि राष्ट्रपति जी के शरीर में खराब खून घुस गया है और जबतक खराब रक्त(खून) को नहीं निकाला जाता तब तक ज्वर ठीक नहीं होगा. तो उन महानुभावों नें राष्ट्रपति के हाथ-पाँव पलंग से बाँध दिए और शरीर से रक्त निकालने के लिए उनके हाथों की नसों को काट दिया. राष्ट्रपति चीखता रहा, पूंछता रहा कि ये सब क्या कर रहे हो? डॉक्टर कहते रहे कि चिंता न करें आपका इलाज हो रहा है. रात भर खून बहता रहा. गंदे के साथ अच्छा खून भी निकल गया और सवेरे राष्ट्रपति की मृत्यु हो गयी. ये बात 1776 के आस-पास की है. जिस समय एलोपेथी में बुखार ठीक करने के लिए लोगों की नसें और नाडियाँ काटी जा रही थीं उस समय भारत में नीम की गिलोय का काढा पिलाकर बड़े से बड़ा ज्वर ठीक कर दिया जाता था, और एक नहीं ऐसे सैकड़ों उपाय भारत में थे हर रोग के लिए.
यूनानी चिकित्सा पद्धति यूनान में विकसित हुई. यूनानी पद्धति के सभी बड़े शोधक(रिसर्चर) ईमानदारी से ये स्वीकार करते हैं कि हमने ये सब आयुर्वेद से सीखा है, भारत से सीखा है. उनके सूत्र भी हमारे
जैसे हैं, बस यूनानी आबोहवा के अनुसार उनमें उन्होनें कुछ बदलाव कर लिए.
[ दी गयी जानकारियाँ ब्रह्मलीन श्री राजीव दीक्षित जी की सालों की मेहनत से जुटाए गए और पूर्णतः प्रमाणित सबूतों के आधार पर आधारित हैं ]
[ राजीव जी की सीडियों के लिए किसी भी पतंजली चिकित्सालय से संपर्क करें और भारत स्वाभिमान शंखनाद नाम से बीस सीडियों का पैकेट वहां आपको मिल जायेगा, इनमें बहुत सी ज़रूरी जानकारियाँ आपको अपने देश, इतिहास और राजनीति के बारे में पता चलेंगी].